सासाराम। बिहार का राजकीय शिक्षा स्थिति आदि काल से अन्य राज्यों या देशों की तुलना में काफी आगे रहा हैं जिसका प्रमाण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं लेकिन वर्तमान स्थिति की बात करें तो ऐसा प्रतीत होता हैं जैसे इतिहास के पन्नो की कहानी हमें दिग्भ्रमित करने के लिए लिखी गई हो। यह उक्त बातें गोपाल नारायण विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभागाध्यक्ष डॉ अमित कुमार मिश्रा ने कही है। आगे उन्होंने कहा कि राजकीय शिक्षा में साक्षरता दर की बात करें तो इसमें एक दशक में इज़ाफा होता दिखता हैं। अगर आंकड़ों का आंकलन करें तो राजकीय शिक्षा में बढोत्तरी 16 से 63 प्रतिशत तक दस्तावेजों के रूप में सुनहरे अंकों में अंकित हैं। जबकि आकंडे झूठ नहीं बोला करतें हैं। ऐसा माना जाता हैं जिसे देश या राज्य की जनता को सहर्ष स्वीकार करना ही विकल्प होगा। ठीक वैसे ही उपरोक्त आकंडा भी बिलकुल सत्य है।
प्रस्तुत आकंड़े केवल साक्षरता की बात करता हैं न की आमजन को शिक्षित कर उन्हें रोजगार मुहैया कराने को कहता है। वहीं शिक्षाविदों का मानना है कि कम से कम प्रारंभिक स्तर पर प्रति 40 छात्रों पर 1 शिक्षक की उपस्थति पर्याप्त हैं लेकिन मौजूदा हालातों की बात करें तो सरकारी व गैर सरकारी दोनों की स्तिथि वास्तविकताओं से कोसो दूर है। उच्च शिक्षा की तरफ नजर डाले तो स्थिति और भी भयावह हैं। राज्य व देश के हर कोने में विश्वविद्यालय महाविद्यालय के रूप में इमारते भी खड़ी हैं जहां हजारों छात्र पंजीकृत भी हैं।उनसे शिक्षा देने के नाम पर मोटी फीस ऐसे वसूली जाती हैं, जैसे महाजन कर्ज देने के बाद वसूलता हैं। देश या प्रदेश की शिक्षा को समीक्षा करें तो यह बात साफ़ नज़र आता हैं कि बिहार राज्य में ऐसे विश्विद्यालय मौजूद है जहां न तो कुलपति हैं और ना ही कुलसचिव, प्राध्यापक की बात करना स्वयं के साथ बेईमानी होगीं। ऐसे में हुकुमरानो का कहना हैं कि प्रतिभाओं का पलायन रोकना जरुरी हैं। यह मजाक नही तो और क्या हैं। बिहार में चालू वित्त वर्ष 2021- 22 में शिक्षा बजट 38035.93 करोड़ का हैं जिसका उपयोग विभाग एवं सरकार द्वारा बिल्डिंग टेंडर अन्य के लिए ज्यादा हो रहा हैं। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षको की नियुक्ति ठंडे बस्ते में पड़ीं हैं जिसे तब खोला जायेगा जब चुनाव की तिथियां नजदीक आने लगेंगी। गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया गया जिसका उद्देश्य निसंदेह सकारत्मक हैं। साथ ही मानव संसाधन मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय कर दिया ताकि यह मंत्रालय केवल शिक्षा के लिए बेहतर कार्य करें लेकिन शायद ऐसा होता नहीं दिख रहा हैं, क्योंकि इस मंत्रालय ने यह स्पष्ट आदेश दिया था कि आगामी वर्ष में सत्र शुरू होने के पहले सभी विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय में प्राध्यापको की नियुक्ति प्रक्रिया पूर्ण कर ली जायेगी लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। बिहार के लगभग 95 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में तो अभी तक इस संबंध में न हीं कोई निर्णय लिया गया है और न हीं इसका संज्ञान लेने की किसी को कोई फुर्सत है।
विश्वविद्यालय में तो अधिकारीयों एवं प्रधानाध्यापकों का घोर अभाव हैं। राज्य सरकार द्वारा शोध परक शिक्षा के नाम पर छात्रों से मज़ाक करना सरकार की आदत सी हो गई हैं। 2024 में बिहार लोक सेवा आयोग ने विश्वविद्यालय में प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति अपने हाथों में ली थी जिसे अब तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। ठीक दूसरी ओर 2021 में बिहार राज्य विश्वविद्यालय आयोग का गठन किया गया ताकि राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में प्रधानाध्यापकों की कमी पूरी की जा सकें। लेकिन इस आयोग की उदासीनता भी सबके सामने आ गई और अभी नियुक्ति की प्रक्रिया कछुए की चाल चल रहा हैं यानि नियुक्ति पुरा होने तक चुनाव आना तय है। राज्य में प्रधानाध्यापकों के अभाव में कई ऐसे विश्वविद्यालय है जहां पाठ्यक्रमों को केवल दस्तावेजो तक सीमित रखा जा रहा हैं। वस्तुतः अगर स्तिथि ऐसे ही बनी रही तो दुसरों को प्रकाशमय करने वाला प्रदेश स्वयं रोशनी की तलाश में दर-बदर भटकने पर मजबूर हो जायेगा।