विविध

औने पौने दाम पर धान बेचने को किसान विवश, नहीं मिलता फसल का उचित मूल्य

 – मनोज मंजिल

कोंच। “नहीं हुआ है अभी सवेरा सूरज की लाली पहचान चिड़ियों के जागने से पहले खाट छोड़ उठ गया किसान” महाकवि सत्य नारायण लाल की उपरोक्त पंक्ति आज भी किसानों के चरित्र को चरितार्थ करता हुआ समाज को चित्रित कर रहा है। आधुनिकता की पराकाष्ठा भरी इस युग में किसानों की समस्या धूमकेतु की पूंछ की तरह निरंतर बढ़ती जा रही है। कभी एमएसपी की गुहार, कभी मौसम की मार तो कभी उर्वरक के लिए हाहाकार किसानों के हृदय में लगातार घात करती आ रही है। बची खुची असर डीजल के बढ़ते दाम निकाल रही है, किसी तरह महंगी बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कर किसान फसल उपजा भी लेते हैं तो मजबूरन औने – पौने दामों पर बेचने को विवश होकर सामाजिक परिदृश्य को समेटने की असफल कोशिश करती है। कृषि प्रधान देश की दम्भ हांकने वाली इस देश में आए दिन किसानों की दुर्दशा देखने को मिलती रहती है। कर्ज की मार से दम तोड़ती किसानी आज इस मुकाम तक पहुंच गई है कि किसान अपने बच्चों का लालन – पालन भी समुचित ढंग से नहीं कर सकते। भले ही मानव जाति आज चांद तक पहुंच कर अपनी परचम लहराया हो मगर आज भी किसानों की स्थिति अंगद की पैर की तरह जस की तस बनी हुई है, किसी तरह कर्ज की बोझ तले किसान अपनी फसलो को उपजा भी लेते हैं तो भी वर्तमान वितरण व्यवस्था में उसे बेचने के लिए दर – दर की ठोकरे खानी पड़ती है। पैक्स – सरकार द्वारा संचालित धान खरीद केंद्र आज भी आम किसानों के पहुँच से दूर बनी हुई है।पैक्स की जटिल व्यवस्था किसानों को बिचौलिओं के हाथों अपनी फसल बेचने को मजबूर कर दे रही हैं। क्या कहते हैं किसान – जब इस संबंध में किसानों से बात की गई तो किसान अपनी वेदना को समेटे झोपड़ी नुमा घर में पुवाल पर लेटे अपनी दुर्दशा को व्यक्त करने लगे कहने लगे कि …बबुआ केतना मेहनत से खाद ला, लम्बा कतार लगाके, आउ ज़ादे दाम देके, जने तने से खाद लाके, खेत में छिट लीव, आउ मेहनत से काट के, पिट के, ओसा के बाजार जब बेचे जाहि त सही कीमत न मिलहे,का करी मजबूरी में बेचे पड़ हेs। वहीं, औने पौने दाम पर बिक रहे किसान के फसल को लेकर उचित मूल्य की मांग किसानों ने सरकार से की है। ताकि किसानों की बिगड़ती दशा में सुधार हो सके।

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