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सामाजिक एवं धार्मिक मान्यता के अनुसार पुनपुन नदी में पिंडदानियों का लगा तांता, सुविधाओं का है घोर अभाव

पिंडदान हैं एक भाव संप्रेषण प्रक्रिया 

औरंगाबाद। पितरों का पिंडदान देश के कई जगहों पर किया जाता है लेकिन बिहार के औरंगाबाद जिले के पुनपुन में पिंडदान का एक अलग ही महत्व है जिसको लेकर पितृ पक्ष के अवसर पर अपने पूर्वजों को प्रथम पिंडदान अर्पित करने के लिए इन दिनों पुनपुन नदी घाट पर पिंड दानियों का तांता लगा हुआ है।

मान्यता के अनुसार पुनपुन नदी को पिंडदान का प्रथम द्वार कहा जाता है। पुनपुन में पिंडदान करने के बाद ही गया में पिंडदान को संपन्न माना जाता है। इसके पीछे सदियों से चली आ रही मान्यता है, अगर यहां पिंडदान किए बिना कोई गया जाकर पितरों के मोक्ष प्राप्ति के लिए पिंडदान करना चाहे तो ऐसा संभव नहीं हो सकता है। कहते हैं यहां पर पिंडदान करने 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है। इसलिए पुनपुन में पितरों को पिंडदान करने के लिए देश ही नहीं विदेशों से भी लोग आते हैं।

मुख्य पंडा सुरेश पाठक ने बताया कि मान्यताओं के अनुसार इस पुनपुन घाट पर ही भगवान श्री राम ने माता जानकी के साथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पहला पिंड का तर्पण किए थे, इसलिए इसे पिंड दान का प्रथम द्वार कहा जाता है। इसके बाद ही गया के फल्गु नदी तट पर पूरे विधि-विधान से तर्पण किया गया था। प्राचीन काल से पहले पुनपुन नदी घाट पर पिंडदान तर्पण करने फिर गया के 52 वेदी पर पिंडदान का तर्पण करने की परंपरा भी है।

तभी पितृपक्ष में पिंडदान को पूरा तर्पण संपन्न माना जाता है। यहां वर्ष भर में तीन बार पिंडदान किया जाता है लेकिन यह आसीन माह वाला पिंड दान का विशेष महत्व है। पितरों की मोक्ष प्राप्ति के लिए यहां पिंडदान किया जाता है। पिंडदान एक भाव संप्रेषण प्रक्रिया है जिस प्रकार से हम आंख बंद करते हैं और घर का टीवी, फ्रिज, कूलर एवं अन्य आवश्यक सामग्रीयां दिख जाता हैं, ठीक उसी प्रकार यहां मातृ कुल एवं पितृ कुल दोनों का पिंड दान होता हैं और हम अपने पितरों को यहां पर याद करते हैं और उनके नाम से पिंडदान करते हैं।

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पिंडदानियों ने क्या कहा : उत्तर प्रदेश के प्रयागराज निवासी सुरेंद्र कुमार शुक्ला ने बताया कि पिंडदान व्यक्ति के जीवन में एक उत्सव समान है जिसमें पुत्र को पिता एवं पूर्वजों की पिंड दान करनी चाहिए। इसमें तीन चीजें आवश्यक है। पहला – माता-पिता की आज्ञा मानना, दूसरा – पूर्वजों के स्वर्गवास होने पर अधिक से अधिक लोगों को भोजन कराना एवं तीसरा- पुनपुन एवं फल्गु नदी में उनका पिंड दान करना। इन कार्यों से ही पुत्र पितृ ऋण से मुक्त हो सकता है। यह उत्सव हर व्यक्ति के जीवन में काफी महत्वपूर्ण है। वास्तव में एक व्यक्ति पुत्र तभी कहला पाएगा जब इन तीनों बातों को अपने जीवन में अनुसरण करेगा। अन्यथा उसे पुत्र कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। इन्हीं तीनों कार्यों से पितरों की ऋण से, ऋषियों के ऋण से एवं देवों के ऋण से मुक्त हो सकता है। इससे दीर्घायु, संतानवृद्धि एवं मोक्ष का आशीर्वाद प्राप्त होता हैं।

उत्तर प्रदेश के उरई निवासी पंडेस कुमार ने बताया कि मरणोपरांत पूर्वजों की उद्धार के लिए हम यहां पुनपुन नदी में पिंडदान करने आए हैं। इसके बाद गया स्थित फल्गु नदी में पिंड दान करेंगे।

सुविधाओं का अभाव : उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के अलावा विभिन्न जगहों से आए लोगों ने कहा कि यहां मूलभूत सुविधाएं नहीं होने के कारण हम सभी को काफी परेशानी झेलना पड़ रहा है। जबकि ऐसे में सरकार तथा जिला प्रशासन को यथोचित आवश्यक सुविधाओं का व्यवस्था करनी चाहिए।

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