विविध

न्याय की तुला 

 

रवींद्र कुमार रतन

लघु कथा: एक थे राजा, वे अपने प्रजाजनों के बीच बड़े ही न्यायप्रिय थे। उन्हे शिकार करना अत्यन्त प्रिय था। वे शाम के समय निकल जाते और कभी छिपकर वेष बदलकर प्रजाजनों की मन: स्थिति जानने का प्रयास करते। कभी सैर करने निकल जाते तो शिकार का आनंद भी लेने लगते। एक शाम वे शिकार के विचार से चल पड़े। रास्ते में सूर्यास्त का दृश्य देख कर आत्म – विभोर हो गये। इसी बीच उन्हें लगा कि पहाडी पर कोई हिरण बैठा है। उनका शिकारी मन शिकार को मचल उठा तो उन्होंने तुुरंत निशाना साधकर उसपर तीर छोड़। तीर लगते ही एक हिर्दय विदारक चीख सुनाई पड़ी। चीख सुन राजा कांप उठे, क्योंकि चीख किसी जानवर की नहीं बल्कि मनुष्य की थीं।

उन्होने निकट जा कर देखा कि एक मनुष्य तीर से घायल होकर पीड़ा से छटपटा रहा है। कुछ ही देर में उसके माता -पिता भी आ गये। अपने पुत्र की यह दुर्दशा देख वे दोनों बेहाल हो गये। राजा काफी विद्वान और न्याय -प्रिय थे। उनके सामने श्रवन कुमार और राजा दशरथ की कहानी प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर चिल्लाने लगी। उनका हिर्दय अपने को दोषी मानने लगा और उन्हे शंका होने लगी कि उसके माता- पिता कोई श्राप न दे दें। इसके पूर्व ही उन्होंने उसका शीघ्र उपचार कराया और उसके बाद दो थाल उस घायल मनुष्य के माता – पिता के सामने मगवाये। एक थाली में चांदी के सिक्के थे और दुसरे में तेज धार वाली चमचमाती तलवार। राजा ने बड़ी दिलेरी के साथ बोले- हे महामानव .. मैने हिरण जैसा जानवर समझकर अंधकार में तीर छोडा था परंतु दुर्भाग्यवश वह आपके पुत्र को लग गया, परंतु अंधकार होते हए भी बिन सोचे समझे तीर चलाना दंडनीयअपराध है। अत: सारा दोष मेरा है। दण्ड देना आपका अधिकार बनता है।

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अत: हे महानुभाव.. निर्णय लेना आपका अधिकार है। आप चाहें तो चांदी के सिक्कों वाली थाली स्वीकार कर अपने पुत्र का समुचित इलाज एवं स्वास्थ लाभ कराकर मेरे द्वारा किए गए भूल को माफ कर दे, अथवा मुझे माफी का हकदार ना समझते हों तो दूसरी थाली में रखी तलवार से मेरा सिर धर से अलग कर दिजीये। न्याय करना आपके हाथों में है।

राजा की न्याय- प्रियता देखकर दम्पत्ति दंग रह गए। उसने कहा: ‘अपनी भूल का अह्सास करना ही सबसे बड़ा न्याय है। हे राजन.. मुझे दोनों में से कुछ नही चाहिए। चांदी के सिक्के लेकर मैं अपने पुत्र के घावों को नही भर सकता और न तलवार से सिर अलग कर अन्याय का परचम ही लहरा सकता। आपसे एक ही प्रार्थना है कि यह भूल अनजाने में भी दोबारा नहीं होनी चाहिए। किसी को पुत्र दे नहीं सकते तो किसी के पुत्र के प्राण लेना कितना दु:खदाई है यह कोई पित ही समझ सकता है। अत: आप निरीह प्राणियों का भी वध करना छोड़ दे।

राजा ने पश्चाताप के साथ ही शिकार कर्ण भी छोड़ दिया और बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से पितृ- श्राप से भी बच गए। इस तरह से लोग अपनी गलतियों या भूलों का स्व विवेक से न्याय करने लगे तो समाज से अन्याय और कोर्ट- कचहरी की सम्स्या समूल समाप्त हो जायगी ।

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