
शराबबंदी बना राजनीतिक हथियार
औरंगाबाद। बिहार में पिछले कई सालों से शराबबंदी है लेकीन यह कानून अब केवल राजनितिक हथियार बन कर रह गई है जिसे सरकार में बैठे लोग अपने सुविधानुसार इस्तेमाल कर रहे है। अर्थात् यह कानून सरकारी फाइलों में ही दम तोड़ रही है। जबकि धरातल पर आए दिन विभिन्न थानों की पुलिस द्वारा शराब की छोटे-बड़े खेप पकड़े जा रहे है। बाबजूद सरकार फर्जी शराबबंदी का ढ़कोसला कर रही है। इस मामले में जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक के प्रदेश महासचिव संदीप सिंह समदर्शी ने कहा है कि बिहार में पूर्ण शराबबंदी को पांच साल से अधिक हो गए लेकिन आज भी यह कानून सफलता की कठघरे में खड़ा है। इस धंधे के संचालन के लिए बकायदा चेन बना हुआ है। इस चेन के सदस्य अलग-अलग लेवल पर काम कर शराबबंदी कानून को धता बता कर लोगों को शराब परोसने में जुटे हुए हैं। पहले पीने वालों को शराब के लिए काउंटर तक जाना पड़ता था लेकिन अब उन्हें होम डिलीवरी मिलने लगा है। आये दिन शराब के छोटे-बड़े खेप पकड़ा जा रहा है लेकीन फिर भी सरकार कह रही है बिहार में पूर्ण शराबबंदी है। जबकि सच तो यह है कि इसके आड़ में जनता के साथ धोखा किया जा रहा है। श्री समदर्शी ने कहा कि यह शराबबंदी नहीं गरिब बंदी है। इसका कारोबार थमने का नाम नहीं ले रहा है, जहां शराब बंदी से लोग है परेशान है वहीं राजस्व का भारी नुक़सान हो रहा है। यही कारण है कि महंगाई की मार से गरिब-मजदूर व आम आदमी की रिढ़ टूट चुकी है। इसका लाभ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ोसी राज्यों को मिल रहा है। आज जहां वाराणसी में पेट्रोल की कीमत 99.28 रुपए है, वहीं रांची में 96.31 रूपए प्रत्येक लीटर है जबकि बिहार में 104.57 रूपए है। अब आप सोचिए 96 रुपये, 99 रुपये और फिर 104 में क्या कुछ अंतर है। सरकार राजस्व की पूर्ति ऐसे कर रही हैं ओर कहने के लिए सरकार को राजस्व की कोई हानि नहीं हो रही है जबकि वहीं महंगाई सातवें आसमान पर है।